Saturday, February 15, 2014

मुझसे मिला दे मुझे, ऐ दोस्त

तुम क्या समझती हो  तुम्हारे सिवा और मेरी कोई महबूबा नहीं 
तुम छोडो तो सही, अपनाने के लिए बाहें फैलाये मौत है खड़ी हुई

इस कदर इख़्तियार है तेरा, सांसों पे मेरी 
तेरे बिना ये ज़िंदगी अब मुमकिन नहीं 

महबूब से शिकवा करूं, जो इस दिल में रह कर भी मेरा न हुआ 
या फिर करूं इस दिल से,  जो मुझ में रह कर भी उसका हो गया 

आज़ाद हो कर कब का उड़ गया होता 
इस पिंजरे से अगर प्यार नहीं होता 

ये सांसे, ये धड़कन, मेरी हर चीज़ है तुम्हारी 
नसीब में मेरे मगर, तेरे साथ का एक पल भी नहीं 

मेरी खता ही सही, पर तुम्हारी भी खूब है अदा 
मुझसे बुलाया नहीं गया और तुमसे आया नहीं गया 

मेरी ये ख्वाइश कि तुम ज़ुबां से इक़रार करते 
तुम्हारी ये ज़िद कि हम तुम्हारी आँखों की ज़ुबां समझते 

इस क़दर उलझ गया हूँ मैं, कि खुद से ही नहीं मिल पाता हूँ
मुझसे मिला दे मुझे, ऐ दोस्त, एक यही इल्तज़ा आखिरी करता हूँ 

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