तुम दूर हो कर भी
क्यों करीब सी लगती हो
क्यों करीब सी लगती हो
खामोश रह कर भी
क्यों सब कुछ कह जाती हो
इस आँच में झुलसा कर भी
क्यों ठंडी छाँव सी लगती हो
यूं प्यास दे कर भी
क्यों तृप्ति सी लगती हो
तुम्हारा यूं बेगानापन मुझे
क्यों अपना सा लगता है
विरह का ये ज़हर मुझे
क्यों अमृत सा लगता है
तुम्हारा हर झूठ हमेशा
क्यों सच सा लगता है
तुम्हारा हर छल हमेशा
क्यों भला सा लगता है
सुना है छल से
नफरत ही पनपती है
मगर न जाने क्यों ये एहसास मुझे
हमेशा मोहब्बत सा ही लगता है
इस आँच में झुलसा कर भी
क्यों ठंडी छाँव सी लगती हो
यूं प्यास दे कर भी
क्यों तृप्ति सी लगती हो
तुम्हारा यूं बेगानापन मुझे
क्यों अपना सा लगता है
विरह का ये ज़हर मुझे
क्यों अमृत सा लगता है
तुम्हारा हर झूठ हमेशा
क्यों सच सा लगता है
तुम्हारा हर छल हमेशा
क्यों भला सा लगता है
सुना है छल से
नफरत ही पनपती है
मगर न जाने क्यों ये एहसास मुझे
हमेशा मोहब्बत सा ही लगता है
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