क्यों तुम पढ़ने आ जाती हो खत वही पुराने
तुम हाथ बढाओ न बढाओ, मेरे हमदम मग़रूर
डूबते हुए तुम्हे पुकारेंगे इक बार ज़रूर
ये दिल कमबख्त कहाँ है मेरी मानता
वरना तुम्हे भूलने ही का इरादा था मेरा
मेरे हज़ार शिकवे, तुम्हारी एक तबस्सुम
मेरे हर सवाल का खूबसूरत जवाब हो तुम
अक्सर होती है गुफ़्तगू खुद से
ज़िक्र पर हमेशा तुम्हारा ही रहता है
मिलना था इक बार मयख़ाने में तुम से
कुछ बेबाक़ सुनानी थी, कुछ सुननी थी तुम से
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