Sunday, December 1, 2013

चाह नहीं

चाह नहीं निहारूं सूरत उसकी वो प्यारी सी 
चाह नहीं देखूं ख्वाब जहाँ इठलाती वो फिरती
चाह नहीं सराहूँ कैसे अनोखे काम वो करती 

चाह नहीं सुनूँ उसकी कहानी सच्ची-झूटी सी  
चाह नहीं कानों में गूंजे वो मधुर खनकती सी हंसी
चाह नहीं सुनाई दे उसकी प्यारी से फटकार, वो गाली 

चाह नहीं पहने वो अब, दी थी उसको जो साडी गुलाबी 
चाह नहीं संग पिए उस टपरी में वो चाय रूहानी 
चाह नहीं अब ओढ़ा दे मुझको वो गुलाबी चुनरिया अपनी 

चाह नहीं वो काम करे अब बन के साथी मेरी 
चाह नहीं वो सीखे कुछ मुझसे बन के विद्यार्थी 
चाह नहीं वो स्पर्श करे बन के मेरी पक्की सी सखी 

चाह नहीं अब चले मेरे संग वो दूर कहीं 
चाह नहीं अब गुज़रें उसके संग शामें मेरी 
चाह नहीं वो रहे जहाँ, आशियाँ हो मेरा भी वहीँ कहीं  

चाहत बस अंतिम अब एक यही
पहलू में उसके अंतिम साँसे गुज़रें मेरी 
दम निकले तो निकले बाँहों में उसकी 

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