लम्हा लम्हा ये सांस अब उखड्ती जाती है
तुम्हारी चाहत में जीने की पर आदत सी हो गयी है
तुम्हारी चाहत में जीने की पर आदत सी हो गयी है
साथ के लम्हों की ख़ुशबू इस क़दर ज़हन में है
विरह में जलने की फितरत सी हो गयी है
दूर रह कर भी तुम इस क़दर हम-वजूद हो
मेरी हर सांस तुम्हारी अमानत सी हो गयी है
तुम नहीं हो तो खुद से ही उलझता रहता हूँ
उल्फत में उलझन से इतनी रफ़ाक़त सी हो गयी है
तुम्हारी हर खता अब नज़ाकत ही लगती है
तुम से इस क़दर मोहब्बत सी हो गयी है
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