उठ के जो चल दिया मैं उसके दर से
शायद इतना वो न चाहती थी मुझे
या भीर घबराती थी पास बुलाने से
बहाने से सही, वापिस तो बुलाया होता
पास बिठा कर फिट मनाया तो होता
यूं नेक बनने की ज़िद में मैं बढ़ता ही जा रहा हूँ
मोहब्बत फना करने का गुनाह करता जा रहा हूँ
लम्हा लम्हा सांसे उखड रही हैं
मेरी जान पीछे छूट ही है
हर मोड़ क्यों मुस्कुराता सा लगता है
इंकार के बाद क्यों अब इंतजार रहता है
कदम कहीं डगमगा न जाएँ रास्ते में
संभालना नहीं आता है ठीक से अभी हमें
एक एक कर के हम देखते गए
सारे अपने आशियाँ ढहते हुए
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