एक तू ही तो है
जिसे टूट कर चाहा मैंने
जिसे टूट कर चाहा मैंने
एक तेरी चाहत ही तो है
जिसे खुदा से माँगा मैंने
क्यों नहीं तेरी यादों से कभी निकल पाता
तूने तो कभी मुझे इस क़दर न चाहा
फिर क्यों हमेशा समझता रहा
तेरे दिल के इक छोटे से कोने को मैं अपना
क्यों नहीं तेरी यादों से कभी निकल पाता
तूने तो कभी मुझे इस क़दर न चाहा
फिर क्यों हमेशा समझता रहा
तेरे दिल के इक छोटे से कोने को मैं अपना
फरेब-ए-यार में इस क़दर
उम्र-ओ-जाँ लुटा दी मैंने
मुंह फेर लेगी तू इस तरह
सोचा भी न था कभी मैंने
खुदा से क्या करूँ शिकवा
जब तुझे ही मंज़ूर न था
मैं इजहार-ए-इश्क करता रहा
मगर तुझे ही कबूल न था
ख़्वाबों के धुंध में
ग़म-ओ-तनहाई छुप गये हैं मेरे
छलकने से पहले
ये अश्क अब सूख गये हैं मेरे
अपने दिल के बंद दरीचों में
कभी झाँका तो होता
जा देख ली मोहब्बत तेरी
काश तुझे इस क़दर चाहा न होता
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