Friday, June 22, 2012

बता तुझ बिन अब रहूँ मैं कैसे

हर पल मैं तुझसे कहता रहा
तू न समझी थी आशय उसका

दिग्भ्रमित करती रही या फिर
मन पर आड़े तिरछे चित्र बना कर

अच्छा होता जो निष्ठुर हो जाती
बर्बादी से पहले ही अजनबी सी बन जाती  

सांझ सवेरे ढूंढ रहा मैं बीते हुए वो पल हमारे
तुझे मिले तो सहेज के रखना, उसमे खोये हैं सपने मेरे

झंकृत करके मन वीणा को
अब यूं मौन खड़ी तू क्यों

आ कर मुझे तू अंक लगा ले
मुक्त कर दे इस विरह वेदना से

रह गए हैं जो आधे अधूरे
पूरे कर दे ख्वाब वो मेरे

ये चाँद क्यों खफा है इतना
महबूब इसका भी है जुदा सा लगता

सोचा था तारे आँचल में भर कर तेरे
मंगल पर ले चलूँगा तुझे साथ मैं अपने

क्यों डरती इतना संग मेरे तू डूबने से
किसी किसी को मिलता है, मौका ये किस्मत से

उतारना चाहा था नशा जो
क्यों है गहराता जाता वो

तेरी शरारत देखने की बेक़रारी
क्यों हर पल है बढती जाती

दबे पाँव तू ख़्वाबों में आ जाती
ख़ुशबू अपनी से मन को मेरे महका जाती

उजाले अपनी यादों के संग मेरे तू अब रहने दे 
न जाने किस पल अब जिंदगी की शाम हो जाए

खुदा करे कभी न हो सवेरा
ख़्वाब में ही यूं दम निकले मेरा
  
बता तुझ बिन अब रहूँ मैं कैसे
बिन तेरी सांसों के अब मरूं मैं कैसे 

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