Wednesday, December 4, 2013

कशमकश

अजीब कशमकश थी, मैं बयां करता रहा, वो चुप ही रहीं 
ऐसी उलझी मोहब्बत कि एक हुए नहीं और अलग रहे नहीं

वो ज़िद करती गयी और उलझन बढ़ती गयीं 
हम जाँ भी दे देते, ज़रा मोहब्बत से पेश तो आतीं 

सारे फ़र्ज़ मेरे ही क्यों, क्यों सारे सितम मुझ पर ही 
वो भी तो कुछ अदा करते, मोहब्बत उन्हें भी तो थी

सुकून हैं हमें कि दूर रह कर हमसे, वो खुश तो हैं 
ज़ख्म बन कर ही सही, मुझ में कहीं रहते तो हैं  

मैंने तो शायद वो खोया, जो था ही कभी मेरा नहीं   
पर उसने तो वो है खोया, जो था सिर्फ उसका ही 

भुला दे वो मुझे,उनका अपना अंदाज़ सही 
मुझसे ये उम्मीद न रखें वो, रत्ती भर भी 

मिलता हूँ सुब से हंस कर, चाहे हर पल सताती हो उनकी याद 
ये अंदाज़ सीख ही लिया है मैंने अब सुब कुछ खो जाने के बाद 

महफ़िल-ए-इश्क़ पे जमा रखा है दिल-जलों ने कब्ज़ा 
बेड़ियां न होती पैरों में तो आशिक़ में भी कमाल होता 

किसी बात पर क़ायम रहना, शायद सुहाता नहीं उन्हें  
इंकार किया है शिददत से इतनी, इस पर तो वो क़ायम रहें  

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