Monday, June 4, 2012

छल

तुम दूर हो कर भी
क्यों करीब सी लगती हो
खामोश रह कर भी
क्यों सब कुछ कह जाती हो

इस आँच में झुलसा कर भी
क्यों ठंडी छाँव सी लगती हो
यूं प्यास दे कर भी
क्यों तृप्ति सी लगती हो

तुम्हारा यूं बेगानापन मुझे 
क्यों अपना सा लगता है
विरह का ये ज़हर मुझे
क्यों अमृत सा लगता है

तुम्हारा हर झूठ हमेशा
क्यों सच सा लगता है
तुम्हारा हर छल हमेशा
क्यों भला सा लगता है

सुना है छल से
नफरत ही पनपती है
मगर न जाने क्यों ये एहसास मुझे
हमेशा मोहब्बत सा ही लगता है

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