Saturday, May 19, 2012

नफरत

प्यार न सही, नफरत ही चाहे करो
कुछ तो ऐसा हो, जो बस मुझसे ही करो

ज़हर देने की ज़रुरत नहीं
नज़र-ए-नफरत ही काफी है तेरी
इन नज़रों से आज तक क्या बच सका
और अब तो मैं खुद भी नहीं जीना चाहता

जुदा कर के कहते हैं जीना भी होगा
ज़हर दे के कहते हैं कि पीना भी होगा
भूल से कहीं ये न समझ लेना
कि मुश्किल होगा तेरे बिन जीना

ये जीना भी है क्या जीना
जब जान ही साथ नहीं
जी तोड़ कोशिश करता रहा
नफरत की इक कोंपल भी न फूटी

जाने क्यों हमेशा है लगता यही
जैसे यहीं हो तुम आस पास कहीं

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