Sunday, September 1, 2013

मुमकिन है क्या कभी तुम्हे छोड़ पाना

अब रब रूठे तो रूठ जाए
सच यही है मगर, रब से ज्यादा प्यार है तुमसे

तुम्हारी वो बेपरवाह हंसी की खनक सदा है कानों में गूंजती
और मेरे सब्र का इम्तिहान न ले, तोड़ दे अब ये चुप्पी अपनी

तुम्हारा एक आंसू भी भारी पड़ता है मेरी साँसों पर
मर-मिटने की चाहत है तुम्हारी हरेक मुस्कान पर

ख्वाबों-ख्यालों में जब तुम ही तुम हो
तो जिंदगी से दूर तुम रहती क्यों हो

दिल चीर के रख देता है, तेरा हर इनकार
जिंदा हूँ बस इस आस में कि, कभी तो ख़त्म होगा तेरे इकरार का इंतज़ार

तुम्ही बताओ, ओ जाने-जाना
मुमकिन है क्या कभी तुम्हे छोड़ पाना

रब का दस्तूर भी है बड़ा अजीब
बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख 

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