Thursday, June 7, 2012

फासले

बीच हमारे ये ख्वाइशों भरे फासले
कांपते होंठों पर इकरार के ये फासले
उल्फत की आग में जलते हुए ये फासले
शायद कभी खत्म न होने वाले ये फासले

चांदनी से दिल ना भरा
तो चाँद की तमन्ना कर बैठा
उस चाँद को कहा मैंने कई बार मगर
कि धरती पर भी है रूप का इक कहर

शायद मैं ही ज्यादा कहता रहा
सपनों में आशियाँ बनाता रहा
पागल था, भूल गया था
तुम्हारा बसर इन में  कहाँ

तुम्हारी कभी सुनी ही नहीं
सुनता रहा बस अपने दिल की ही
प्यार में है जीवन की ख़ुशी 
पर देती है ख़ुशी कई ग़म भी

अब तुम्हारे इंतज़ार में, ज़िन्दगी की शाम हो चली
डरता हूँ आख़िरी रात में इज़हार-ए-इश्क न हो जाए कहीं
कहतें हैं लोग कि आग का दरिया है इश्क, ये कर भी लूं यकीं
पर भूल जातें हैं वो, कि आग से कौन अपने को जलाता है कभी

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