Sunday, November 3, 2013

तुम इतनी क्यों बेखबर हो !

सुलझे धागों में उलझी सी क्यों हो 
उम्मीदों भरी, खुद से डरती ही क्यों हो 
बातों ही बातों में फिसलती सी क्यों हो 
जब गिरती नहीं तो संभलती ही क्यों हो 
थोड़ी सम्बल सी, थोड़ी बुज़दिल सी क्यों हो 
हसने कि धुन में रोती ही क्यों हो 
तुम इतनी क्यों बेखबर हो 

खुश्बू बन के इन हवाओं में तुम हो 
रंग बन के इन फ़िज़ाओं में तुम हो 
एहसास बन के, जज़बातों में तुम हो 
तुम्ही हमसफ़र हो, मंज़िल भी तुम हो 
हर सोच में, हर बात में, तुम ही तुम हो 
तुमको हर रूप में, मैं हूँ पहचानता 
तुम इतनी क्यों बेखबर हो 

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